मंदी का दौर और यूपी का तबादला उद्योग
विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के इस दौर में जब देश के बड़े-बड़े उद्योग धंधों की दम निकली पड़ी है और उन्हें खड़ा रखने के लिए केंद्र सरकार को लगातार प्राणवायु मुहैया करानी पड़ रही है, तब भी यूपी का तबादला उद्योग न सिर्फ पूरे दम-खम के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है बल्कि अच्छा-खासा फल-फूल भी रहा है।
वैसे तो तबादलों को उद्योग का दर्जा दिलाने में काफी पहले ही हमारे राजनेता सफल हो गए थे लिहाजा सरकारें बेशक बदलती रहीं किंतु तबादला उद्योग कभी बंद नहीं हुआ। वर्ष 2017 में यूपी पर योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली सरकार काबिज होने के बाद लोगों को कुछ ऐसी उम्मीद बंधी कि शायद अब भ्रष्टाचार की बुनियाद माना जाने वाला तबादला उद्योग जरूर प्रभावित होगा।
योगी सरकार ने अपने शुरूआती कुछ महीनों तक इसके संकेत भी दिए कि वह अधिकारियों को ताश के पत्तों की तरह फेंटने की बजाय यथास्थिति बनाए रखेंगे और जो जहां है, उससे वहीं बेहतर काम लेंगे क्योंकि ब्यूरोक्रेसी हवा के रुख को पहचान कर नतीजे देती है।
किंतु जल्दी ही पहले तुरुप के इक्कों में फेर-बदल किया गया, और फिर बादशाह-बेगम व गुलामों की हैसियत वाले भी इधर से उधर किये जाने लगे।
आज जबकि योगी आदित्यनाथ की सरकार को यूपी की कमान संभाले हुए ढाई वर्ष अर्थात आधा कार्यकाल बीत चुका है तब पता लग रहा है कि योगीराज में भी तबादलों का खेल उसी प्रकार खेला जा रहा है, जिस प्रकार सूबे की पूर्ववर्ती सरकारें खेलती रही थीं।
योगी सरकार में शीघ्र ही तबादला उद्योग ढर्रे पर आ जाने के पीछे भी वही कारण बताए जा रहे हैं जो अखिलेश या मायाराज में बताए जाते थे। यानी…
अब स्थिति यह है कि शायद ही किसी जिले में कोई अधिकारी टिक पाता हो। तबादला उद्योग के गतिमान रहने से अधिकारियों के स्थायित्व की समयाविधि ”महीनों में” सिमट कर रह गई है।
ये आदान-प्रदान किस स्तर पर हो रहा है और कौन कर रहा है, इसे जानना भी कोई रॉकेट साइंस नहीं है परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि सबके सब ‘अनभिज्ञ’ बने रहते हैं।
सरकार से ही जुड़े सूत्रों का स्पष्ट कहना है कि भ्रष्टाचार पर ‘जीरो टॉलरेंस’ की बात करने वाले योगी आदित्यनाथ की सरकार में आज प्रदेश, मंडल व जिलों में तैनाती का रेट फिक्स है।
हो सकता है ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए निर्धारित दामों की लिस्ट योगी आदित्यनाथ की नजरों के सामने न आ पायी हो परंतु भ्रष्ट और भ्रष्टतम अधिकारियों की अच्छे-अच्छे पदों पर तैनाती यह समझने के लिए काफी है कि तबादला उद्योग पूरी रफ्तार से चल रहा है।
यदि इतने से भी किसी कारणवश बात समझ में नहीं आ रही हो तो बहुत जल्दी-जल्दी तबादले स्पष्ट बता देते हैं कि दाल में कुछ काला नहीं है, पूरी की पूरी दाल काली है।
दरअसल, तबादला उद्योग एक ऐसा उद्योग है जो ऊपर से चलता है तो बहुत जल्दी नीचे तक अपनी जड़ें जमा लेता है।
बात चाहे पुलिस की हो अथवा प्रशासन की, आला अधिकारी अपनी भरपाई करने के लिए वही रास्ता अपने मातहतों के लिए खोल देते हैं जिस रास्ते पर चलकर वह वहां तक पहुंचते हैं।
यदि किसी जिले में डीएम और एसएसपी अथवा एसपी कुछ महीनों के मेहमान होते हैं तो उस जिले में उनके अधीनस्थ भी महीनों के हिसाब से ‘चार्ज’ पाते हैं।
चूंकि जिले के प्रभार का रेट वहां मौजूद आमदनी के अतिरिक्त स्त्रोतों और उसकी भोगौलिक एवं आर्थिक स्थिति के अनुरूप निर्धारित रहता है इसलिए हर जिले में सर्किल, थाने-कोतवाली सहित प्रशासनिक हलकों के दाम भी उसी के हिसाब से तय होते हैं।
कहने के लिए पिछले दिनों बुलंदशहर के SSP एन कोलांची को थानेदारों की तैनाती में अनियमितता बररतने पर निलंबित कर दिया गया।
फिर प्रयागराज (इलाहाबाद) के एसएसपी अतुल शर्मा को निलंबित कर दिया।
अपर मुख्य सचिव गृह अवनीश अवस्थी के अनुसार बुलंदशहर में दो थाने ऐसे थे जहां एसएसपी एन. कोलांची ने सात दिन से भी कम समय के लिए उपनिरीक्षकों को चार्ज दिया। एक थाना ऐसा था जहां का चार्ज मात्र 33 दिन में छीन लिया गया।
इतना ही नहीं, कोलांची ने दो ऐसे उप निरीक्षकों को चार्ज दे दिया जिन्हें पूर्व में Condemned entry (परनिंदा प्रविष्टि) दी जा चुकी थी।
अपर मुख्य सचिव गृह अवनीश अवस्थी की बात सच मानी जाए तो फिर प्रदेश के तमाम उन अन्य जिलों का क्या, जहां अयोग्य उपनिरीक्षकों-निरीक्षकों तथा उपाधीक्षकों को लगातार चार्ज पर रखा जा रहा है।
इसी प्रकार प्रयागराज (इलाहाबाद) के एसएसपी अतुल शर्मा को प्रदेश के डीजीपी ओपी सिंह ने अपनी रिपोर्ट में बाकायदा ‘निकम्मा’ अधिकारी घोषित किया है।
ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि एक निकम्मा अधिकारी प्रयागराज जैसे बड़े व महत्वपूर्ण जिले का चार्ज कैसे पा गया ?
आगरा के एसएसपी बनाए गए जोगेन्द्र सिंह को बमुश्किल कुछ हफ्ते में हटा दिया गया, फिलहाल वह आगरा में ही जीआरपी के एसपी हैं।
जल्द ही अगर उन्हें फिर किसी महत्वपूर्ण जिले का चार्ज दे दिया जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।
मतलब तबादला उद्योग के चलते उच्च अधिकारियों से लेकर जिलों में बांटे जाने वाले ‘चार्ज’ की योग्यता कुछ महीनों, कुछ दिनों और यहां तक कि कुछ घंटों में तय की जा सकती है। बशर्ते कि मनमाफिक चार्ज चाहने वाला मनमुताबिक रकम अदा करने को तैयार हो।
यही कारण है कि एक ओर जहां हर स्तर पर ऐसे अकर्मण्य और निकम्मे लोग चार्ज पर मिल जाएंगे जिनकी आम शौहरत जगजाहिर है, वहीं दूसरी ओर काबिल-जिम्मेदार व कर्तव्यनिष्ठ लोग सम्मानजनक पोस्टिंग के लिए दर-दर भटकते मिलेंगे।
कहीं-कहीं तो नौबत यहां तक आ जाती है कि मजबूरन कोई अनुशासन को ताक पर रखकर शिकवा-शिकायत करने लगता है तो कोई न्यायपालिका की शरण में जा पहुंचता है क्योंकि निजी स्वार्थों की पूर्ति में लिप्त अधिकारी उनके भविष्य को अंधकारमय बनाने से भी परहेज नहीं करते।
फिलहाल पूरे प्रदेश में ऐसे एक-दो नहीं, अनेक उदाहरण सामने हैं जहां नाकाबिल लोग तबादला उद्योग से लाभान्वित होकर मलाईदार पदों पर जमे हुए हैं जबकि अच्छी कार्यशैली वाले अधिकारी एवं कर्मचारियों को कोई मौका नहीं दिया जा रहा।
यदि प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद इस तबादला उद्योग की बारीक समीक्षा करें और जिलों के अंदर आए दिन की जाने वाली उठा-पटक का पता लगाएं तो चौंकाने वाली सच्चाई सामने आ सकती है।
आश्चर्य तो इस बात पर है कि बुलंदशहर के एसएसपी रहे कोलांची और प्रयागराज के एसएसपी रहे अतुल शर्मा का उदाहरण सामने होने के बावजूद सीएम योगी समूची हांडी के पकने का इंतजार क्यों कर रहे हैं।
योगी जी को यह भी समझना होगा कि हर बार चुनाव परिणाम मोदी मैजिक से नहीं मिलने वाले। 2022 में जब यूपी विधानसभा के चुनाव होंगे तब बाकी उपलब्धियों के साथ-साथ तबादला उद्योग और उससे प्रभावित हो रही कानून-व्यवस्था का भी आंकलन जरूर होगा।