जितेन्द्र तिवारी

उस जत्थे में किसे पता था कि एक ट्रेन आएगी और सबको मौत की नींद सुला कर चली जायेगी। जब वह पैदल अपने घरों के लिए मजबूरी के सफर के लिए निकलेंगे तो यह उनकी जिंदगी की अंतिम यात्रा होगी, जहां वह अपने परिवार से भी नहीं मिल पाएंगे। महामारी के इस संकटकाल में दोनों ओर से मौत का ही डर था। एक तरफ कोरोना जैसी बीमारी तो दूसरी ओर दो वक्त की रोटी का संकट इन सबके बीच लॉकडाउन में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में फंसे प्रवासी मजदूरों को कहां पता था कि एक मौत की झपकी आएगी और इनकी जिंदगी को रौंद कर चली जायेगी। दरअसल, खबरों के मुताबिक औरंगाबाद से घर वापसी की ओर कदम बढ़ा रहे ये प्रवासी मजदूर 35 किलोमीटर पैदल चले थे, मगर रास्ते में चलते-चलते उन्हें थकावट महसूस हुई और पटरी पर ही झपकी लेने लगे। मगर उन्हें कहां पता था कि उनकी ये झपकी, मौत में बदल जाएगी। 35 किलोमीटर चलने के बाद ये सभी मजदूर पटरी पर ही आराम करने लगे। सुबह करीब सवा पांच बजे के वक्त ये सभी गहरी नींद में सो रहे थे। तभी ट्रेन आती है और इन्हें रौंद डालती है। खबरों के अनुसार सुबह के वक्त गहरी नींद में होने की वजह से किसी को भी संभलने का मौका नहीं मिला और घर वापस लौटने की उम्मीद उनकी वहीं टूट गई। बताया जा रहा है कि मरने वालों में मजदूरों के बच्चे भी शामिल है। कितना दर्दनाक मंजर रहा होगा। हादसे की तस्वीरें दिल दहला देने वाली है लेकिन इन सबके बीच पटरियो पर बिखरी पड़ी रोटियां बहुत कुछ समझा भी रही है। जिसके सहारे वो मंजिल को नापने निकले थे जिसके लिए घर-द्वार छोड़ा था। वही रोटियां अब मजबूरी की दास्तां बयां कर रही है। इनदिनों सबसे नाजुक दौर में फंसी मुफिलसी की ये कहानी भले ही उन सफेद पोशों के मुवाबजे की रकम तले दब जाए लेकिन ये मौत का मंजर उन आंखों में जरूर बसा रहेगा कि भूंख कितनी खतरनाक होती है।जो दो वक्त की रोटी के लिए कितनी मुश्किल भरी राहों पर चलने को मजबूर कर देती है।

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